भारतीय विदेश विभाग की इससे बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है कि पिछले सत्तर वर्षों में सभी पड़ोसी मित्र देशों को शत्रु बना दिया। हिंदी चीनी भाई भाई ने जो पीठ में छुरा घोंपा उसके घाव अभी हरे हैं। आज भी सच्चाई यही है कि विदेश नीतियां चुनी हुई सरकारें नहीं, बल्कि अधिकारी ही बना रहे हैं। अब तो राजदूत भी वे ही बन रहे हैं। न ये दूध से जलते हैं और न ही छाछ पीते हैं। देश की खातिर कोई भी अपना घर बेचने वाला नहीं है। दूरदर्शिता का ही प्रमाण हम देख रहे हैं। भोग रहे हैं क सोमवार को दोपहर शांति वार्ता और रात को आक्रमण। सन 1962 का इतिहास दोहरा दिया गया और हम ? पेश है पत्रिका समूह के प्रधान सम्पादक गुलाब कोठारी की कलम से....उसे भी मजबूर करें
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