आज नए कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ किसान सड़कों पर अपनी बात सुने जाने का इंतज़ार कर रहा है, वैसे ही लगभग एक सौ तेरह साल पहले भी किसानों को अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए घर की दहलीज़ लांघकर सड़क पर उतरना पड़ा था। फ़र्क सिर्फ़ इतना ही है कि सुनकर भी अनसुनी कर देने वाले, तब पराए थे और आज कुछ अपने ही हैं, लेकिन अपनी पगड़ी को अपनी आन, बान और शान मानने वाले हमारे किसान न तब सिर झुकाकर अपनी पगड़ी गिराने को राज़ी थे और न आज हैं। आज याद ताज़ी हो रही है उस आंदोलन की, जिसने पगड़ी को ही परचम बना दिया था, यानी जिसे आज भी पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन के नाम से तुरंत पहचान लिया जाता है। आज समय बदल गया है, लेकिन लगभग एक सौ तेरह साल बाद भी कुछ वही पुराने सवाल एक बार फिर किसानों के सामने उठ खड़े हुए हैं, जिनका जवाब पाने का इंतज़ार पाने का इंतज़ार जारी है।