गृहस्थ हो भी गए हो, तो भीतर आत्मस्थ रहो || आचार्य प्रशांत, परमहंस गीता पर (2020)

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वीडियो जानकारी:
पार से उपहार शिविर, 19.04.20, ग्रेटर नॉएडा, भारत

प्रसंग:
यथा ह्नुवत्सरं कृष्यमाणमप्यदग्धबीज क्षेत्र पुररेवावपन-काले गुल्मतृणवीरुद्धिर्गह्नमिव
भवत्येवमेव गृहा श्रम: कर्मक्षेत्र यस्मिन्न हि कर्माण्युत्सीदन्ति यदयं कामकरण्ड एष आवसथ:॥

जिस प्रकार यदि किसी खेत के बीजों कों अग्नि द्वारा जला न दिया गया हो तो प्रतिवर्ष जोतने पर भी खेती का समय आने पर वह फिर झाड़-झंखाड़, लता और तृण आदि से गहन हो जाता है उसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम भी कर्मभूमि है, इसमें भी कर्मो का सर्वथा उच्छेद कभी नहीं होता; क्योंकि यह घर कामनाओं की पिटारी है।

~ परमहंस गीता (अध्याय ५, श्लोक ४ )

~ गृहस्थ में रहते हुए आत्मस्थ कैसे रहे?
~आत्मस्थ कहने का क्या आशय है?
~आत्मस्थ होकर कैसे जीया जा सकता है?
~आत्मस्थ आदमी की पहचान क्या है?

संगीत: मिलिंद दाते
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