वीडियो जानकारी:
अद्वैत बोध शिविर, 27.12.19, ग्रेटर नॉएडा, उत्तर प्रदेश, भारत
प्रसंग:
दानं व्रतं ब्रह्मचर्यं यथोक्तव्रतधारणम्।
दमः प्रशान्तता चैव भूतानां चानुकम्पनम्॥१४॥
संयमश्चानृशंस्यं च परस्वादान वर्जनम्।
व्यलीकानामकरणं भूतानां यत्र सा भुवि॥१५॥
मातापित्रोश्च शुश्रूषा देवतातिथिपूजनम्।
गुरु पूजा घृणा शौचं नित्यमिन्द्रियसंयमः॥१६॥
प्रवर्तनं शुभानां च तत्सतां वृत्तमुच्यते।
ततो धर्मः प्रभवति यः प्रजाः पाति शाश्वतीः॥१७॥
भावार्थ: दान, व्रत, ब्रह्मचर्य, शास्त्रोक्त रीति से वेदाध्ययन, इन्द्रियग्रह, शान्ति, समस्त प्राणियों पर दया,
चित्त का संयम, कोमलता, दूसरों के धन लेने की इच्छा का त्याग, संसार के प्राणियों का मन से भी
अहित न करना, माता-पिता की सेवा, देवता, अतिथि और गुरुओं की पूजा, दया, पवित्रता,
इन्द्रियों को सदा काबू में रखना तथा शुभ कर्मों का प्रचार करना- यह सब श्रेष्ठ पुरुषों का बर्ताव कहलाता है।
इनके अनुष्ठान से धर्म होता है, जो सदा प्रजावर्ग की रक्षा करता है।
~उत्तर गीता (अध्याय ३, श्लोक १४, १५, १६, १७)
~ दान और व्रत का क्या अर्थ है?
~ दान में क्या देना चाहिए?
~ व्रत में क्या त्यागना चाहिए?
संगीत: मिलिंद दाते