रावण का वध कर राम, लक्ष्मण और सीता के साथ अयोध्या लौटे

DainikBhaskar 2019-10-07

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मैं रावण। पुलत्स्य ऋषि का पौत्र। विश्रवा का पुत्र। कुबेर का भाई। मेरा जन्म वन में हुआ लेकिन मेरे भ्राता कुबेर को पितामह ब्रह्मा ने देवताओं का धनाधिपति नियुक्त किया। स्वर्ण की लंका में उसे निवास दिया। जन्म के बाद से ही मेरी तुलना कुबेर के साथ होने लगी। घोर तपस्या और अतुल्य पराक्रम के बल पर मैंने ब्रह्मा से वरदान प्राप्त किए। फिर सबसे पहले कुबेर की लंका पर आधिपत्य स्थापित किया। कुबेर शिव की शरण में था किंतु आशुतोष शिव का कुबेर से अधिक अनुग्रह मुझ पर था। मैंने त्रिलोक विजय किया। संसार में कोई ऐसा नहीं था जिसे मैंने अपने बल से पराजित ना किया हो। 



 



किंतु, आज संपूर्ण राक्षसकुल में एकमात्र योद्धा मैं ही शेष हूं। सारे राक्षसवंशी राम, लक्ष्मण या वानरों के हाथों वीरगति को प्राप्त हुए। आज सारे परिजनों का अंतिम संस्कार और पिंडदान करके मुझे ही युद्ध में उतरना है। एक बार मैंने पराक्रम दिखा भी दिया है। नागपाश में राम और लक्ष्मण को बांध कर। इस बार दोनों के प्राणों की आहुति देकर अपने परिजनों का तर्पण करूंगा। 



 



मैं अपने सुंदर रथ पर सवार हो रणभूमि में आ गया। मैंने सीधे राम को ललकारा। राम मेरे सामने उपस्थित था। बिना रथ और बिना किसी कवच के। यहां तक कि उसके पैरों में पादुकाएं भी नहीं थी। लेकिन पराक्रम अद्भुत था। वानरों और मेरे भाई विभीषण को भी इसकी चिंता थी। तभी आसमान से एक दिव्य रथ उतरा और राम के आगे खड़ा हो गया। ये मेरा पहचाना हुआ रथ था। अरे, ये तो इंद्र का रथ था, उसका सारथी मातालि राम के लिए लेकर आया था। जो देवता मेरे नाम से भी कांपते थे, वो आज मेरे विरुद्ध राम की सहायता कर रहे हैं। मैंने इंद्र को पुकार कर कहा, पहले मैं राम से युद्ध कर उसे स्वर्ग भेज दूं फिर इंद्र तुम्हारा भी लेखा पूरा कर दूंगा। 



 



इंद्र के रथ पर सवार राम से युद्ध शुरू हुआ। जो अपने आप में अद्वितीय था। दोनों ओर से दिव्यास्त्रों का प्रहार हो रहा था। राम ने कई बार चोट पहुंचाई। सिर भी काटे लेकिन हर बार ब्रह्मा का वरदान मुझे बचा रहा था। एक सिर कटते ही दूसरा आ जाता। कई तरह से राम ने मुझ पर वार किए लेकिन मैं हर बार बचता रहा। देवता भी आकाश से इस युद्ध को देख रहे थे। युद्ध अपने चरम पर था लेकिन ना मेरा कोई तीर राम को छू पाता था ना राम के किसी तीर से मुझे कोई हानि हो रही थी। देवता और वानर दल में चिंता थी। मेरी मृत्यु संभव नहीं है, क्योंकि मैं अमरत्व लेकर आया हूं। 



 



तभी कुछ घटा। विभीषण राम के निकट आया। मेरा मन कर रहा था एक तीर से कम से कम विभीषण को तो स्वर्ग भेज ही दूं, इसी कुलघाती के कारण पूरा राक्षसवंश नष्ट हो गया। इसी ने राम को सारे राक्षसों के वध के रहस्य बताए अन्यथा मेघनाद और कुंभकर्ण जैसे वीरों को मारना आसान नहीं था। विभीषण ने राम को कोई युक्ति सुझाई। अभी तक चिंताग्रस्त दिख रहे राम के चेहरे पर अनायास आत्मविश्वास फूट पड़ा। उसने एक दिव्यास्त्र निकाला और मेरी तरफ संधान किया। मैंने भी उसके उत्तर में एक दिव्यास्त्र का संधान किया लेकिन उसके पूर्व ही राम का बाण मेरी नाभि में लगा। विभीषण ने संभवतः मेरी नाभि के अमृत का रहस्य राम को बता दिया। फिर एकसाथ कई बाण आए और मेरे हाथ सिर आदि शरीर से अलग हो गए। 



 



एक अजेय योद्धा रणभूमि पर अचेत आ गिरा। सभी मेरे ईर्द-गिर्द आ गए। राक्षस सेना में हाहाकार मच गया, लंका से विलाप के स्वर सुनाई देने लगे। मंदोदरी आदि रानियां आ गईं। मैं निस्तेज, निष्प्राण भूमि पर था, लंका का दिव्य राजमुकुट भी धूमिल हो गया। सब विलाप कर रहे थे। कुलघाती विभीषण भी। लेकिन मैं पराजित हो चुका था। अपने अहंकार के कारण। युद्ध खत्म हुआ। विभीषण का राजतिलक हो गया। सीता राम को सौंप दी गई। राम विजय होकर अयोध्या के लिए लौट गए।

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