भगवद गीता - अध्याय २ - पद २५, २६ और २७ | अर्था । आध्यात्मिक विचार | भगवद गीता का ज्ञान

Artha 2019-02-05

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भगवद गीता के इस वीडियो में देखिए की भगवान कृष्ण अर्जुन को आत्मा के अनिवार्य उद्देश्य (विशेष रूप से एक योद्धा के लिए ) के बारे में निर्देश देते हैं।

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१ पच्चीसवें श्लोक में, भगवान कृष्ण का ध्यान फिर से अर्जुन के दुःख की तात्कालिक समस्या की ओर जाता है, जिसे भगवान रोकना चाहते है।



२ पच्चीसवें और छब्बीसवें श्लोक में भगवान कृष्ण कहते है:

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।

तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ।।२५।।



अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ।।२६।।



३ इन श्लोक का अर्थ है;

यह आत्मा अदृश्य, अकल्पनीय, और अपरिवर्तनीय है, इस प्रकार आत्मा को अच्छी तरह जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है



हे महाबाहु! यदि तू इस आत्मा को सदा जन्म लेने वाली तथा सदा मरने वाली मानता है, तो भी तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है

४ यहां, भगवान कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि किसी भी परिस्थिति में क्षत्रिय धर्म के कर्तव्यों का त्याग करना स्वीकार्य नहीं है

५ सत्ताईसवाँ श्लोक इस प्रकार है;

जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।२७।।



६ इस श्लोक का अर्थ है;

जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म निश्चित है, अत: इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है।

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