द्वैत और अज्ञान से बाहर कैसे निकलें? || आचार्य प्रशांत, अपरोक्षानुभूति पर (2018)

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वीडियो जानकारी: शब्दयोग सत्संग, 21.04.2018, अद्वैत बोधस्थल, ग्रेटर नॉएडा, भारत

प्रसंग:

आदि शंकराचार्य का कथन है-

यत्त्राज्ञानाद्भवेद्द्वैतमितरस्तत्त्र पश्यति ।
आत्मत्वेन यदा सर्वं नेतरस्तत्र चाण्वपि ॥ ५३ ॥
भावार्थ: जहाँ अज्ञान से द्वैतभाव होता है, वहीं कोई और दिखलाई देता है।
जब सब आत्मरूप ही दिखलाई देता है, तब अन्य कुछ भी नहीं रहता ।

यस्मिन्सर्वाणि भूतानि ह्यात्मत्वेन विजानतः ।
न वै तस्य भवेन्मोहो न च शोकोऽद्वितीयतः ॥ ५४ ॥
भावार्थ: उस अवस्था में सम्पूर्ण भूतों को आत्मभाव से जानने वाले उस महात्मा
को कोई दूसरा न रहने के कारण न मोह होता है और न शोक ही।

एवं देहद्वयादन्य आत्मा पुरुष ईश्वरः ।
सर्वात्मा सर्वरूपश्च सर्वातीतोऽहमव्ययः ॥ ४० ॥
भावार्थ: आत्मा स्थूल एवं सूक्ष्म, दोनों प्रकार के शरीरों से भिन्न है।
अतः मैं सर्वात्मा, सर्वरूप, अविनाशी और सबसे परे हूँ।
~ अपरोक्षानुभूति

~ द्वैत और अज्ञान से बाहर कैसे निकलें?
~ आत्मरूप क्या है?
~ महात्मा को मोह और शोक क्यों नहीं होता?

संगीत: मिलिंद दाते
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