वीडियो जानकारी:
२१ अप्रैल, २०१८
अद्वैत बोधस्थल,
ग्रेटर नॉएडा
प्रसंग:
यत्राज्ञानाद्भवेद्द्वैतमितरस्तत्र पश्यति ।
आत्मत्वेन यदा सर्वं नेतरस्तत्र चाण्वपि ॥ ५३॥
यस्मिन्सर्वाणि भूतानि ह्यात्मत्वेन विजानतः ।
न वै तस्य भवेन्मोहो न च शोकोऽद्वितीयतः ॥ ५४॥
भावार्थ: जहाँ अज्ञान से द्वैतभाव होता है, वहीं कोई और दिखलाई देता है। जब सब आत्मरूप ही दिखलाई देता है, अब अन्य कुछ भी नहीं रहता।
उस अवस्था में सम्पूर्ण भूतों को आत्मभाव से जानने वाले उस महात्मा को कोई दूसरा न रहने के कारण न मोह होता है और न शोक ही।
~ अपरोक्षानुभूति
द्वैत से ऊपर कैसे उठें?
अज्ञान से कैसे पार पाएँ?
द्वैत और अज्ञान से बाहर कैसे निकलें?
अपरोक्षानुभूति को कैसे समझें?
द्वैत और अद्वैत में क्या अंतर है?
संगीत: मिलिंद दाते