इन दिनों सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के जजों की नियुक्ति (Appointment Of Supreme Court Judges) को लेकर पारंपरिक तौर से जो कॉलेजियम सिस्टम (Collegium System) महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था, उसके अस्तित्व को लेकर बहस छिड़ी हुई है। कुछ का कहना है कि इस तरह की व्यवस्था को खत्म कर दिया जाना चाहिए, जबकि बहुत से बुद्धिजीवियों का मत है कि इसके महत्व को कम समझने की भूल नहीं की जानी चाहिए। इस बीच चर्चाओं नें उपराष्ट्रपति (Vice President) का वो बयान भी है जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के आदेश (Supreme Court Order) को, जिसमें उसने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून (National Judicial Appointments Commission Act) रद्द करने की बात कही थी, उसे उन्होंने उस जनादेश के असम्मान की भांति बताया था, जिसकी संरक्षक भारतीय संसदीय व्यवस्था मानी जाती है। वैसे आपको बता दें कि सदन और न्यायपालिका के बीच इस तरह के टकराव पहले भी होते रहे हैं। इसमें सबसे दिलचस्प एक वाक़या है साल-1964 का, जब उत्तर प्रदेश विधानसभा ने विशेषाधिकार हनन (Parliamentary Privilege) से जुए एक मामले में, इलाहाबाद हाई कोर्ट (Allahabad High Court) के 2 जजों और 1 वकील के खिलाफ अरेस्ट वॉरेंट ही जारी कर दिया था (Arrest Warrant Against Jugges)।
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