हिंदी की बिंदी में आज हम जिस कवि को याद कर रहे हैं, वे हैं मंगलेश डबराल, जिन्होंने हाल ही में इस दुनिया को अलविदा कहा है। 16 मई, 1948 को टिहरी गढ़वाल के काफलपानी गांव में जन्मे मंगलेश डबराल जी की शिक्षा-दीक्षा देहरादून में हुए थी और उसके बाद रोज़ी-रोटी की चिंता ने उन्हें दूसरे शहरों की तरफ़ रुख़ करने को मजबूर करके उस नदी की तरह कर दिया। उनकी कविताओं में समय, समाज और इंसानी सरोकारों से जुड़े जो सवाल हमेशा मुखर रहे हैं, उनके उत्तरों की तलाश एक लंबे युग के हिस्से में आ गई है। अपने निजी जीवन में बेहद सादगी से जीने वाले मंगलेश डबराल ने सामाजिक तानों-बानों की बेतरतीबी को अपने शब्दों की ज़ुबान दी। उनके 6 काव्य संग्रह प्रकाशित हुए थे- पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं, आवाज़ भी एक जगह है, नए युग में शत्रु और उनका अंतिम काव्य संग्रह- स्मृति एक दूसरा समय है। कविताओं के अलावा उन्होंने गद्य भी लिखे थे, जिनमें एक बार आयोवा, कवि का अकेलापन, लेखक की रोटी और उनका यात्रा संस्मरण एक सड़क एक जगह के नाम ख़ासतौर पर याद किए जा सकते हैं।
कवि मंगलेश डबराल एक सजग पत्रकार भी थे और प्रतिपक्ष, पूर्वग्रह, अमृत प्रभाव आदि पत्रिकाओं से जुडते हुए उन्होंने जनसत्ता और सहारा समय जैसे समाचार पत्रों पर भी अपने काम के माध्यम से अपनी मज़बूत छाप छोड़ी। जहां एक तरफ़ मंगलेश डबराल जी ने ब्रेख्त, पाब्लो नेरूदा, एर्नेस्तो कार्देनाल, डोरा गाबे आदि जैसे अनेक विदेशी कवियों की रचनाओं के अंगेज़ी से हिंदी में शानदार-भावपूर्ण अनुवाद किए, वहीं दूसरी तरफ़ ख़ुद मंगलेश जी की कविताओं के भी सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, डच, फ्रांसीसी, स्पेनिश, इटेलियन, बल्गारी जैसी विदेशी भाषाओं में भी बड़े पैमाने पर अनुवाद हुए।
उन्हें अनेक पुरस्कारों-सम्मानों से भी नवाज़ा गया था, लेकिन बाद में सरकार की असहिष्णुतापूर्ण नीतियों के मुद्दे पर उन्होंने अपना साहित्य अकादमी अवॉर्ड लौटा दिया था।