एक भय परम तक भी ले जाता है || आचार्य प्रशांत, कठ उपनिषद् पर (2017)

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शब्दयोग सत्संग
३० नवम्बर २०१७
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा

यदिदं किम् च जगत्सर्वं प्राण एजति निःसृतम्।
महभ्दयम् वज्रमुद्यतं य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।।२।।
~ कठ उपनिषद्, दूसरा अध्याय, तृतीय वल्ली, दूसरा श्लोक

अर्थ: यह जो कुछ सारा जगत है प्राण – ब्रह्म में, उदित होकर उसी से, चेष्टा कर रहा है। वह ब्रह्म महान भयरूप और उठे हुए वज्र के सामान है। जो इसे जानते हैं वे अमर हो जाते हैं।

भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः।।३।।
~ कठ उपनिषद्, दूसरा अध्याय, तृतीय वल्ली, तीसरा श्लोक

अर्थ: इस (परमेश्वर) के भय से अग्नि तपता है, इसी के भय से सूर्य तपता है तथा इसी के भय से इन्द्र,वायु और पाँचवाँ मृत्यु दौड़ता है।

प्रसंग:
भय जीवन को नष्ट कर रहा है, जीवन भय मुक्त कैसे बनाये?
भय की क्या आवश्यकता है?
भय -- हानिकारक है या लाभदायक?
इस (परमेश्वर) के भय से अग्नि तपता है, इसी के भय से सूर्य तपता है तथा इसी के भय से इन्द्र,वायु और पाँचवाँ मृत्यु दौड़ता है। परमेश्वर के भय का क्या आशय है?
डर और डर के बीच क्या अंतर है?
भगवान् से डरना माने क्या?

संगीत: मिलिंद दाते

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