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शब्दयोग सत्संग
१७ नवम्बर २०१७
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा
~ कठोपनिषद, द्वितीय वल्ली, प्रथम श्लोक:
अन्यछ्रेयोऽन्यदुतैव प्रेय
स्ते उभे नानार्थे पुरुषम् सिनीतः।
त्योः श्रेय आददानस्य साधु
भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ।।१।।
प्रसंग:
कठ उपनिषद् में जो प्रिय लगे, उससे बचने को कोई बोला गया है?
शुभ का मतलब क्या है?
हीत और प्रिय में क्या अंतर हैं?
कैसे जाने की मेरे लिए हीतकर क्या है?
साधक का मन कैसा होता है?
जीवन सार्थक कैसे बने?
संगीत: मिलिंद दाते