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शब्दयोग सत्संग
६ मार्च २०१४
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा
अष्टावक्र गीता (अध्याय १८ श्लोक ४)
भवोऽयं भावनामात्रो न किंचित् परमर्थतः।
नास्त्यभावः स्वभावनां भावाभावविभाविनाम्॥
अर्थ:
भाव और अभाव के मध्यस्वभाव का कभी नाश नहीं होता
प्रसंग:
क्या है जो है, ऐसा क्यों बोल रहे अष्टावक्र?
संसार हैं, सपना हैं, सब है?
जहाँ दिखे वहाँ देखो, जहाँ न दिखे वहाँ भी देखो
क्या भ्रम भी है सत्य भी है?