वीडियो जानकारी:
शब्दयोग सत्संग
४ मार्च २०१४
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा
अष्टावक्र गीता (अध्याय १८ श्लोक ३५)
शुद्धं बुद्धं प्रियं पूर्णं निष्प्रपंचं निरामयं।
आत्मानं तं न जानन्ति तत्राभ्यासपरा जनाः॥
अर्थ:
आत्मा के सम्बन्ध में जो लोग अभ्यास में लग रहे हैं, वे अपने शुद्ध, बुद्ध, प्रिय, पूर्ण, निष्प्रपंच और निरामय ब्रह्म-स्वरूप को नहीं जानते |
प्रसंग:
खुद को जानने की कोशिश तुम्हें खुद से दूर ही ले जायेगी ऐसा क्यों कह रहे है? अष्टावक्र
क्या आत्म ज्ञान अभ्यास करके जाना जा सकता है?
विधि कितना आवश्यक है ध्यान के लिये?