तुम्हारा स्वरुप क्या? तुम्हें विश्राम कहाँ? || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2017)

Views 11

वीडियो जानकारी:

शब्दयोग सत्संग
१९अप्रैल २०१७
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा

कुत्रापि न जिहासास्ति नाशो वापि न कुत्रचित् ।आत्मारामस्यधीरस्य शीतलाच्छतरात्मनः ।। (२३)

जिसका अंतःकरण शीतल एवं स्वच्छ है, वो आत्माराम है। उस धीरपुरुष की न तो किसी वास्तु के त्याग की इच्छा होती है, और न तो कुछ पाने की आशा।

प्रकृत्या शून्यचित्तस्य कुर्वतोऽस्य यदृच्छया ।
प्राकृतस्येव धीरस्य न मानो नावमानता ।।( २४)

जिस धीर का चित्त स्वभाव से ही शून्य निर्विषय है, वह साधारण पुरुष के सामान प्रारब्धवश बहुत से काम करता रहता है परन्तु न उसे मान होता है, और न ही अपमान।

कृतं देहेन कर्मेदं न मया शुद्धरूपिणा ।
इति चिन्तानुरोधी यः कुर्वन्नपि करोतिन ॥(२५)

यह कर्म शरीर ने किया है, मैंने नहीं। मैं तो शुद्ध स्वरुप हूँ। इस प्रकार जिसने निश्चय कर लिया है, वह कर्म करता हुआ भी नहीं करता।

अतद्वादीव कुरुते न भवेदपि बालिशः ।
जीवन्मुक्तः सुखी श्रीमान् संसरन्नपि शोभते ॥(२६)

सुखी एवं श्रीमान जीवनमुक्त पुरुष, सत्यवादी विषयी के सामान काम करता है, परन्तु विषयी नहीं होता। यह तो संसार का कार्य करता हुआ भी अतिशय शोभा को प्राप्त होता है।

नाविचारसुश्रान्तो धीरो विश्रान्तिमागतः।
न कल्पते न जाति न शृणोति न पश्यति॥ (२७)

वह न कल्पना करता है, न जानता है, न सुनता है, न देखता है। वो धीर पुरुष अनेक विचारों से थककर अपने स्वरुप में विश्राम पा चुका है।

प्रसंग:
तुम्हारा स्वरुप क्या?
तुम्हें विश्राम कहाँ?
क्या धीर पुरुष न त्याग करता है न प्राप्त करता है?
सत्यवादी विषयी के सामान कैसे कार्य करें?
हम चैन क्यों नहीं पाते है?

Share This Video


Download

  
Report form
RELATED VIDEOS