वीडियो जानकारी: शास्त्र कौमुदी, 17.04.2022, ग्रेटर नॉएडा
प्रसंग:
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।
हे कुन्तीपुत्र, इन्द्रियों और विषयों का संस्पर्श ही शीत-उष्ण और सुख-दुःख का देने वाला है।
वे आते हैं और नष्ट हो जाते हैं, इसलिए अनित्य हैं। अतः हे अर्जुन, तुम तितिक्षा दर्शाओ।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक १४)
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।
हे पुरुष श्रेष्ठ, ये शितोष्णादि जिस धीर व्यक्ति को व्यथित नहीं कर पाते,
सुख-दुःख में एक सा रहने वाला वह व्यक्ति आनंद अमृत का अधिकारी होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक १५)
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।
असत् वस्तु का अस्तित्व नहीं है, परन्तु सत् वस्तु का कभी अभाव नहीं है,
तत्त्वज्ञानियों के द्वारा इन दोनों का स्वरूप देखा गया है।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक १६)
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।।
जिसके द्वारा यह समस्त संसार व्याप्त है, उसी को विनाश-रहित अर्थात नित्य जानो।
कोई भी इस नित्य आत्मा का विनाश करने में समर्थ नहीं होता।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक १७)
संगीत: मिलिंद दाते
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