कोरोना महामारी के समय दुनियाभर के देश लॉकडाउन से गुजर रहे हैं। बच्चे—बड़े सभी घर में हैं। ऐसे में बच्चे अपना ज्यादातर टाइम मोबाइल या दूसरे गैजेट के साथ बिता रहे हैं। यह किसी खतरे से कम नहीं। हाल ही में कोटा के 14 साल के बच्चे ने मोबाइल स्ट्रेस के चलते आत्महत्या कर ली। इस बच्चे ने रातभर गेम खेलने के बाद सुबह फंदा लगाकर आत्महत्या कर ली। बताया जाता है कि इस बच्चे को पबजी गेम की लत थी।
लत किसी भी चीज की बुरी होती है। ऐसी किसी भी अति से बच्चे को बचाए रखने के लिए अब पेरेंट्स को सतर्क रहने की जरूरत है। क्योंकि हर घर में मोबाइल है, ऐसे में ज्यादा समय तक बच्चे को मोबाइल से दूर रखना मुश्किल होता है। लेकिन इस मुश्किल को भी पार करना जरूरी है।
ऐसे कितने ही बच्चे हैं, जो दिन—रात मोबाइल में गेम खेले देखे जा रहे हैं। ऐसे में पेरेंट्स सिर्फ उन्हें डांटकर अपने ही काम में व्यस्त हो जाते हैं। जबकि इस पेनडेमिक टाइम में बच्चों को भी क्वालिटी टाइम चाहिए। उनकी इस जरूरत को पेरेंट्स समझ नहीं पा रहे।
साइकोलॉजिस्ट की मानें तो यदि बच्चों को घर के लोगों से ही समय मिले तो वे इस मोबाइल के खतरे से बच सकते हैं। ऐसे समय में संयुक्त परिवार बच्चों के लिए खास हो जाते हैं। जब दादा—दादी, चाचा—चाची या दूसरे सदस्य उनसे बात करने के लिए उपलब्ध रहें। कोरोना ने जिंदगी में जैसे बदलाव ला दिया है, वैसे ही अब पेरेंटिंग में भी बदलाव जरूरी हैं।
डॉ. मोनिका गौड़ का कहना है कि इस तनाव के समय में बच्चे भी काफी प्रभावित होते हैं। उन्हें मोबाइल की नहीं, पेरेंट्स के क्वालिटी टाइम की जरूरत है। ताकि महामारी के दौरान वे कोरोना से भी बचें और मोबाइल स्ट्रेस से। दिनभर में आधे घंटे से ज्यादा उन्हें मोबाइल के साथ समय ना बिताने दें। अपने काम में व्यस्त रहते हुए बच्चों के हाथ में मोबाइल थमा देने से बेहतर हैं कि उन्हें कुछ क्रिएटिव कामों में लगाया जाए। पेंटिंग, गार्डनिंग, पोएट्री लिखना, कहानी पढ़ना, बुजुगों से उनके अनुभव जानना उनके जीवन को खुशियों से भर देता है। साथ ही उन्हें जीवन में नयापन लगने लगता है और वे मोबाइल के बिना भी दुनिया को समझने लगते हैं।