संसार में, और संसार से परे || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2017)

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शब्दयोग सत्संग
१९अप्रैल २०१७
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा

अष्टावक्र गीता, अध्याय १८ से
असंसारस्य तु क्वापि न हर्षो न विषादिता।
स शीतलहमना नित्यं विदेह इव राजये॥१८- २२॥

संसारमुक्त पुरुष को ना कहीं कोई हर्ष होता है, न विषाद, उसका मन सदा शीतल होता है, और वह विदेह के समान शोभायमान होता है।

प्रसंग:
संसारमुक्त पुरुष कहने से क्या आशय है?
असंसारी पुरुष कैसा होता है?
क्या असंसारी पुरुष को सुख या दुःख का आभास नहीं होता है?
संसार में रहकर भी संसार के पार कैसे जाया जा सकता है?
संसारी और असंसारी में क्या भेद है?

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