न कैद की कसक, न मुक्ति की ठसक || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

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वीडियो जानकारी:

शब्दयोग सत्संग
९ अप्रैल २०१४
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा

दोहा:
हद चले सो मानवा, बेहद चले सो साध |
हद बेहद दोनों तजे, ताका मता अगाध ||

प्रसंग:
न कैद की कसक, न मुक्ति की ठसक?
हम सीमाओ में क्यों जीते है?
क्या सीमाओ के पर भी कुछ है?
"हद चले सो मानवा, बेहद चले सो साध" यहाँ बेहद कहने का क्या आशय है?

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