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शब्दयोग सत्संग
१७ अप्रैल २०१७
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा
अष्टावक्र गीता, अध्याय १८ से
धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत् ।
नो समाधिं न विक्षेपं न लोपं स्वस्य पश्यति ॥१८॥
तत्वज्ञ पुरुष तो संसारियों से उल्टा ही होता है, वो सामान्य लोगों जैसा व्यवहार करता हुआ भी अपने स्वरुप में न समाधि देखता है, न विक्षेप और न लेप ही।
प्रसंग:
संत कौन है?
सच्चा संत कैसे पहचाने?
संसारी कौन हैं?
संत और संसारी में भेद है?
झूठे संत का क्या पहचान है?
क्या संत का आचरण संसारी से अलग होता है?
संत कहने का क्या आशय हैं?
संत से हमारा क्या नाता है/क्या सम्बन्ध है?
कैसे जाने की हम संत के करीब है या दूर है?
हम संत कैसे बन सकते है?
संत और संसारी के प्रेम में क्या अंतर है?
संसारी के लिए प्रेम क्या है?
संत प्रेम किसे कहते है?