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शब्दयोग सत्संग
१० अप्रैल २०१७
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा
अष्टावक्र गीता, (अध्याय १८)
व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः ।
वीतशोका विराजन्ते निरावरणदृष्टयः ॥६॥
अज्ञान मात्र की निवृत्ति होते ही, तथा स्वरुप का बोध होते ही, दृष्टि का आवरण भंग हो जाता है और तत्वज्ञ पुरुष शोकरहित होकर शोभायमान होते हैं।
प्रसंग:
अज्ञान मात्र की निवृत्ति क्यों होती है?
अज्ञान की निवृत्ति कैसे होती है?
"अज्ञान मात्र की निवृत्ति होते ही, तथा स्वरुप का बोध होते ही, दृष्टि का आवरण भंग हो जाता है और तत्वज्ञ पुरुष शोकरहित होकर शोभायमान होते हैं।" यहाँ पर तत्वज्ञ पुरुष किसे बताया गया है?
स्वरुप का बोध से क्या आशय है?