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शब्दयोग सत्संग
१४ मई २०१७
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा
दोहा:
कबीरा रेख सिन्दूर की, काजर किया न जाय ।
तन में मन में प्रीतम बसा, दूजा कहाँ समाय ।।
~ संत कबीर
एक बुंद ते सब किया, यह देह का विस्तार ।
सो तू क्यों बिसारिया, अँधा मूढ़ गंवार ।।
~ संत कबीर
माता का सिर मूड़िये, पिता कुँ दीजैं मार ।
बन्धु मारि डारे कुआ, पंडित करो विचार ।।
~ संत कबीर
प्रसंग:
तन में मन में प्रीतम को कैसे बैठाए?
संसार क्या है?
मोह क्या है?
मोह से इतना आसक्ति क्यों हो जाती है?
सत्य क्या है?
"मै" के भाव से मुक्ति कैसे पाए?
क्या आकर्षण -विकर्षण दोनों मोह है?
संगीत: मिलिंद दाते