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शब्दयोग सत्संग
९ मार्च २०१४
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा
अष्टावक्र गीता (अध्याय १८ श्लोक १०)
न विक्षेपो न चैकाग्र्यं नातिबोधो न मूढता।
न सुखं न च वा दुःखं उपशान्तस्य योगिनः॥
अर्थ:
अपने स्वरुप में स्थित होकर शांत हुए तत्त्व ज्ञानी के लिए न विक्षेप है और न एकाग्रता, न ज्ञान है और न अज्ञान, न सुख है और न दुःख।
प्रसंग:
मन प्रिये पर क्यों एकाग्र हो जाता है?
संस्कारित मन और वृतियां में झगड़े क्यों होते है?
ध्यान आवश्यक है या एकाग्रता?
न ज्ञान न अज्ञान, न सुख न दुःख से योग पुरुष विचलित नहीं होता है ऐसा क्यों कह रहे अष्टावक्र?