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शब्दयोग सत्संग
१७ अगस्त २०१९
अद्वैत बोधस्थल, ग्रेटर नॉएडा
प्रसंग:
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥
भावार्थ :
सुहृद् (स्वार्थ रहित सबका हित करने वाला), मित्र, वैरी, उदासीन (पक्षपातरहित), मध्यस्थ (दोनों ओर की भलाई चाहने वाला), द्वेष्य और बन्धुगणों में, धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है॥
मित्र कौन?
सच्चा मित्र कौन?
प्रकृति में मित्रता कैसे होती है?
संगीत: मिलिंद दाते