वीडियो जानकारी:
शब्दयोग सत्संग
२७ जुलाई २०१४
अद्वैत बोधस्थल
दोहा:
मरते मरते जग मुआ, बहुरि न किया विचार |
एक सियानी आपनी, परबस मुआ संसार||
मरते मरते जग मुआ, औरस मुआ न कोय|
दास कबीरा यों मुआ, बहुरि न मरना होय ||
प्रसंग:
जीना हो तो मौत को चुनना होगा?
कबीर किस मौत की बात कर रहे है?
"मै कबीरा ऐसा मरा, दूजा जनम न होय" इसका क्या मर्म है?