भगवद गीता - अध्याय २ - पद ४१, ४२ और ४३
भगवद गीता के इस वीडियो में भगवान कृष्ण बुद्धि और मन के बिच के भेद के बारे में बताते है
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१ इकतालीसवे श्लोक के शब्द इस प्रकार है
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ।।४१।।
२ इस श्लोक का अर्थ है :
हे कुरुनन्दन ! जो इस बुद्धि योग के मार्ग पर हैं, उनकी बुद्धिमत्ता और उनका उद्देश्य एक ही होता है। किन्तु अनिश्चितता के पथ पर आगे बढ़ने वालों की बुद्धि असीमित और विविध शाखाओं में विभक्त रहती हैं।
३ यहां, भगवान कृष्ण यह स्पष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं कि दृढ़ बुद्धि का व्यक्ति किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एकचित्त ध्यान केंद्रित कर सकता है और ऐसी प्रबल मानसिकता वाला व्यक्ति सत्य और धर्म के मार्ग से कभी भी विचलित नहीं हो सकता।
४ बयालीस और तैंतालीसवा श्लोक इस प्रकार है
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ।।४२।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ।।४३।।
५ इन पदों का भावार्थ इस प्रकार है
हे पृथापुत्र! अल्प-ज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते है, जो स्वर्ग की प्राप्ति, उत्तम जन्म तथा ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिये अनेक सकाम कर्म-फ़ल की विविध क्रियाओं का वर्णन करते है। वे केवल वेदों के उन भागों की महिमा का वर्णन करते हैं जो इन्द्रिय-तृप्ति और ऐश्वर्यमय जीवन की कामना के लिए बेहतर है।
६ भगवद गीता के अगले वीडियो में देखिए की भगवान कृष्ण अर्जुन को आत्म-परायण बनने के लिए क्या कहते है