सृष्टि के मूल में हिरण्यगर्भ (ब्रह्म का संकल्प बीज) क्रियाशील प्रवाह के रूप में व्यक्त होता है। इसी हिरण्यगर्भ से विराट पुरुष, उसकी इन्द्रियों एवं देवताओं का सृजन हुआ है। ऋग्वेद में इनका विशद विश्लेषण है। "ऐतरेयोपनिषद" ऋग्वेदीय आरण्यक के चौथे, पांचवें और छठे अध्याय में 'ब्रह्मविद्या' के रूप में प्रतिपादित किया गया है। इसमें तीन अध्याय हैं। इसके प्रथम अध्याय में तीन खण्ड और द्वितीय में एक खण्ड हैं। तृतीय अध्याय में उपास्य देव के स्वरूप का वर्णन है। परम पूज्य सदगुरुदेव स्वामी श्री अभयानंद सरस्वती जी महाराज की ओज पूर्ण सरल व्याख्यान शैली में प्रवदित यह उपनिषद साधकों के लिए बिशेष कल्याणकारी है।